हां, वो एक वेश्या थी

कामिनी, पुंश्चली, गणिका, 
कुंभदासी, देवदासी, रुपाजीवा..... 
अनेक नाम थे उसके
कुछ साहित्यकार उसे शिल्पकारिका
तो कुछ 
तवायफ के नाम से जानते थे।। 

कुदरत के निर्माण नियमों से पूर्णतः उलट
दिन के समय काजल कहलाती 
और 
नितांत स्याह काले एकान्त में 
उसे 
सौंदर्य का पर्याय कहा जाता था।। 
हां, वो एक वेश्या थी.......।।

कहाँ से आई थी 
और क्यों आई थी 
ये उसके लिए पूर्णतः निषिद्ध प्रश्न था
अतैव अनुत्तरित भी
और अब तो वो
ये जानना भी नहीं चाहती थी
क्योंकि 
बाईजी जैसी मां का स्नेह 
दलाल रुपी भाई का प्यार
और 
उसके जैसी अनेक अन्य बंधकी
उसका सम्पूर्ण संतुष्ट संसार थे।।
हां, वो एक वेश्या थी.......।।

चार बच्चों की 
"मां" भी थी वो 
कुंवारी भी, सुहागन भी और विधवा भी
उनमें से दो लड़के, थे उसका कलुषित भूत
और 
दो लड़कियां, उसका बिन मांगा क्रूर भविष्य 
कभी कभी बच्चों का
बालपन मचल उठता था 
पिता को देखने को
और वो कर देती थी उन्हें संतुष्ट 
उघाङकर अपने जिस्म की कुछ वहशी खरोंचें..... 
हां, वो एक वेश्या थी.......।।

बङी अजीब सी विधना की मालकिन थी
कि, 
जिन घरों की चारदीवारी में 
उसकी परछाई भी निषिद्ध थी
वहीं निवास करने वाले 
श्वेत वस्त्र धारी 
उसके मांस और मज्जा के 
थे, सबसे बड़े सौदागर 
और 
उसकी आजीविका के मुख्य साधन भी।। 
जो पुण्यात्माऐं 
सूर्य के नीचे उसके स्पर्श से
अस्पृश्यता के बोध से भर जाती थी 
चंद्रमा के ज्वार में, 
उन्हीं जिव्हाओं को उसने 
अपनी श्वेत पिंडलियों का स्तुतिज्ञान गाते हुए देखा था 
हां, वो एक वेश्या थी.......।।

आश्चर्यजनक रूप से 
समाज का संगम कराती थी
प्रतिरूप उसका सामाजिक बुराई का था
परन्तु 
केवल उसी दर पर 
कुरितियां दम तोड़ती नजर आती थी 
वो 
ना धर्म का भेद करती थी, ना सम्प्रदाय का
ना कोई ऊंचा होता था तो ना कोई नीच
ना कोई ज्ञानी और ना ही कोई अनपढ़ 
और प्रत्युत्तर में 
ना हरा उसे बुर्के में देखना चाहता था 
तो 
ना केसरिया उसे घूंघट में बांधना चाहता था 
एक वाक्य में कहूं तो 
उसने
सामाजिक धाराओं के विपरित बहकर
खुद को 
एक आदर्श संविधान के रुप में स्थापित किया था 
एक ऐसा संविधान 
जिसकी दुहाई हर कोई देता है 
पर लागू कोई नहीं करना चाहता
परन्तु फिर भी 
हां, वो एक वेश्या थी.......।।

पापिन, मलिन, अपवित्र, मैली, दूषित..... 
अनेकोनेक समानार्थी अलंकरण 
उसे सुशोभित करते थे 
क्योंकि 
वो असमर्थ थी
हर रात के बाद 
काबा जाकर हाजी होने में
और 
गंगा नहाकर पवित्र होने में
परन्तु 
हर बार 
अपनी छातियों को नुचवाकर मिले सिक्कों से 
लाया हुआ दूध 
अपने दुधमूंहे को पिलाते वक्त 
वो नहाती थी, खुद के खारे आंसूओं से 
और 
हर बार हो उठती थी 
किसी भी ज्ञात पवित्रता से अधिक 
नि:शेष, श्वेत, पवित्र, 
और पुज्यनीय.....
हां, वो एक वेश्या थी.......।।


तारीख: 02.07.2017                                    उत्तम दिनोदिया









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