हो गई है भोर सूरज आ गया है,
अत्र तत्र सर्वत्र लालिमा अपनी बिखरा रहा है ।
है बहुत ही ख़ुश आज कुछ अच्छा ही होगा,
दे रहा हूँ प्रकाश अपना सर्वस्व यहाँ में ।
पर यह क्या जो कल था,
वो ही आज भी मैं देख रहा हूँ ।
अत्र तत्र सर्वत्र यहाँ पर कोई सदाचार नहीं है,
केवल पाप ही पाप है यहाँ पर ।
हो गया नाराज़ सूरज चढ़ गया सर पर,
दिखा दिया ४५-५० का तांडव धरा पर,
शायद सुधर जायें सब यहाँ पर ।
पर उसे नहीं पता यह इंसान किस मिट्टी का बना है,
वह नहीं सुधरेगा कभी, वह नहीं बदलेगा कभी ।
थक गया सूरज अब शाम हो आई ,
होकर निराश वह जाने लगा और कहीं ।
जाते जाते चंदा को बुला गया वो,
बातें उसको समझा गया वो ।
मैं थक गया हूँ अब तुम संभालो,
अपनी ठंडक से सभी की गर्मी मिटा दो ।
मैं कल फिर से आऊंगा,
कुछ अच्छा समाचार तुम मुझे देना ।
अब बारी चंदा की थी,
देकर अपनी ठंडक सभी को वो बहुत खुश था ।
सब सुधार दूंगा मैं, इसी उधेड़बुन में मन था ।
तभी अचानक ज़ोर की चीखें उसे आईं,
नीचे देखा तो आँख उसकी डबडबाई ।
कहीं था चीरहरण, कहीं भाई भाई का झगड़ा था,
कहीं चोरी डकैती थी
और कहीं लाल रंग गहरा था ।
क्या जबाव दूंगा कल जब सूर्य आयेगा,
होकर उदास वो गड़ा जा रहा था ।
तभी द्वार पर दस्तक फिर सूर्य ने दे दी ,
देख उदास चाँद को उसने कुछ नहीं पूछा ।
जाओ तुम चले जाओ अब मेरी बारी है,
जब तक सांस है तब तक आस है
बस ये ही कहानी हमारी है,
बस ये ही कहानी हमारी है ।