चाँद और सूरज का दर्द


                             
हो गई है भोर सूरज आ गया है,  
अत्र तत्र सर्वत्र लालिमा अपनी बिखरा रहा है । 
है बहुत ही ख़ुश आज कुछ अच्छा ही होगा,  
दे रहा हूँ प्रकाश अपना सर्वस्व यहाँ में । 

पर यह क्या जो कल था,  
वो ही आज भी मैं देख रहा हूँ । 
अत्र तत्र सर्वत्र यहाँ पर कोई सदाचार नहीं है,  
केवल पाप ही पाप है यहाँ पर । 

हो गया नाराज़ सूरज चढ़ गया सर पर,  
दिखा दिया ४५-५० का तांडव धरा पर, 
शायद सुधर जायें सब यहाँ पर । 

पर उसे नहीं पता यह इंसान किस मिट्टी का बना है, 
वह नहीं सुधरेगा कभी, वह नहीं बदलेगा कभी । 
थक गया सूरज अब शाम हो आई ,  
होकर निराश वह जाने लगा और कहीं । 

जाते जाते चंदा को बुला गया वो,  
बातें उसको समझा गया वो । 
मैं थक गया हूँ अब तुम संभालो,  
अपनी ठंडक से सभी की गर्मी मिटा दो । 

मैं कल फिर से आऊंगा,  
कुछ अच्छा समाचार तुम मुझे देना । 
अब बारी चंदा की थी,  
देकर अपनी ठंडक सभी को वो बहुत खुश था । 

सब सुधार दूंगा मैं, इसी उधेड़बुन में मन था । 
तभी अचानक ज़ोर की चीखें उसे आईं,  
नीचे देखा तो आँख उसकी डबडबाई । 
कहीं था चीरहरण, कहीं भाई भाई का झगड़ा था,  
कहीं चोरी डकैती थी  
और कहीं लाल रंग गहरा था । 

क्या जबाव दूंगा कल जब सूर्य आयेगा,  
होकर उदास वो गड़ा जा रहा था । 
तभी द्वार पर दस्तक फिर सूर्य ने दे दी ,  
देख उदास चाँद को उसने कुछ नहीं पूछा । 

जाओ तुम चले जाओ अब मेरी बारी है,  
जब तक सांस है तब तक आस है 
बस ये ही कहानी हमारी है,  
बस ये ही कहानी हमारी है ।  

 


तारीख: 03.11.2017                                    रत्ना पांडे









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